पौराणिक प्रेम कथा :- क्यों दिया राजा महाभिष और गंगा को ब्रह्मा जी ने श्राप !

पौराणिक प्रेम कथा :- राजा महाभिष और गंगा को ब्रह्मा जी श्राप !

Mythological love story :- Brahma ji

 cursed King Mahabhish and Ganga!

पौराणिक प्रेम कथा :- राजा महाभिष और गंगा को ब्रह्मा जी श्राप !
पौराणिक प्रेम कथा :- राजा महाभिष और गंगा को ब्रह्मा जी श्राप !

प्रिय पाठकों 

पौराणिक प्रेम कथाओं की सीरीज में आज की कहानी हैं "पौराणिक प्रेम कथा :- राजा महाभिष और गंगा को ब्रह्मा जी श्राप !" पौराणिक प्रेम कथाएं भारतीय साहित्य में महत्वपूर्ण हिस्सा हैं और वे हमारी संस्कृति, नैतिकता और राष्ट्रीय धार्मिक भावनाओं को प्रतिष्ठित करती हैं। इन पौराणिक प्रेम कथाओं का इतिहास बहुत पुराना है और इन्हें लोग पीढ़ी से पीढ़ी तक आदि रचनाओं और पौराणिक कथाओं के रूप में पढ़ते आए हैं। इन कथाओं में प्रेम के विभिन्न पहलुओं, रोमांचक घटनाओं, नायिकाओं और नायकों के चरित्र विकास के माध्यम से विभिन्न संदेश और सिद्धांतों की प्रस्तुति की गई है।

जिसमें से कुछ प्रसिद्ध पौराणिक प्रेम कथाएं जिसे आप यहां "पौराणिक कथाओं का महा संग्रह" से पढ़ सकते हैं। इसमें सभी प्रमुख पौराणिक प्रेम कथाओं के उल्लेख की सूची हैं। इसके अलावा भी बहुत सारी प्रेम कथाएं हैं जो भारतीय पौराणिक साहित्य में प्रसिद्ध हैं। ये कथाएं विभिन्न पौराणिक और धार्मिक ग्रंथों में प्राप्त होती हैं और अलग-अलग प्रेम कहानियों को आधार बनाती हैं। तो चलिए शुरू करते हैं आज की प्रेम कथा।


पौराणिक प्रेम कथा :- राजा महाभिष और गंगा को ब्रह्मा जी श्राप !


Mythological love story :- Brahma ji cursed King

 Mahabhish and Ganga!


राजा महाभिष और गंगा को ब्रह्मा जी का श्राप:-

प्राचीन समय की बात है । इक्ष्वाकुवंश में महाभिष नामक राजा प्रसिद्ध था । राजा महाभिष बड़ा ही सत्यानुरागी और धर्मपरायण था । उसने एक सहस्त्र अश्वमेध और सौ राजसूय यज्ञ करके देवराज इन्द्र को प्रसन्न कर लिया । इस प्रकार यज्ञों के पूण्य फल के रूप में राजा को स्वर्गलोक की प्राप्ति हो गई। एक बार देवताओं की सभा में राजा महाभिष भी ब्रह्माजी के समीप बैठे हुए थे । तभी नदियों में श्रेष्ठ गंगा का आगमन हुआ । तभी संयोग से वायु के झोंके से उनके चमचमाते सुन्दर वस्त्र सहसा उड़कर ऊपर उठ गये । यह देख तत्क्षण सभी देवताओं ने अपनी नजरे नीचे झुका ली । किन्तु राजा महाभिष एकटक परम सुन्दरीरूप गंगा को निहारते रह गये ।


यह देख रोष में आकर भगवान ब्रह्मा ने महाभिष को शाप देते हुए कहा – “ हे दुर्मति महाभिष ! तुम्हारी इस कुदृष्टि के कारण तुम्हें मनुष्यलोक में जन्म लेना होगा और तत्पश्चात तुम्हें पुण्यलोक मिलेगा । जिस गंगाने तुम्हारे चित्त को चुराया है, वही मनुष्यलोक में तुम्हारे विपरीत आचरण करेगी । जब तुम्हें उसपर क्रोध आएगा और वह तुम्हे छोड़कर चली जाएगी, तभी तुम इस शाप से मुक्त हो पाओगे ।” राजा शांतनु महाभारत एक प्रमुख पात्र है ।वे ब्रह्मदेव के श्राप के कारण पृथ्वी पर शांतनु के रूप में जन्म लिए। वे हस्तिनापुर नरेश प्रतीप के पुत्र थे राजा प्रतीप के पश्चात शांतनु राजा बने। शांतनु पितामह भीष्म के पिता एवं पांडवों, कौरवों के परदादा थे। आगे हम कुरूवंश का प्रारंभ और राजा शांतनु की कथा को जानेंगे।


कुरुवंश की शुरुआत :-

 पुराणों के अनुसार ब्रह्मा जी से अत्रि , अत्रि से चंद्रमा, चंद्रमा से बुध और बुध से इलानंदन पुरुरवा का जन्म हुआ। पुरुरवा से आयु, आयु से राजा नहुष और नहुष से ययाति उत्पन्न हुए। ययाति से पुरु हुए। पुरुवंश में भरत और भरत के कुल में राजा कुरु हुए और यहीं से कुरु वंश की शुरुआत हुई। कुरुवंश की शुरुआत महान प्रतापी, शूरवीर और तेजस्वी राजा कुरु से हुई। कुरुवंश के प्रथम पुरुष थे। राजा कुरू के नाम पर कुरुवंश की शाखाएं निकली और विकसित हुई। कुरूवंश में एक से एक महान प्रतापी और तेजस्वी वीर पैदा हुए। पांडवों और कौरवों ने भी कुरु वंश में जन्म लिया था। महाभारत का युद्ध भी कुरूवंशियों के बीच हुआ था। कुरु वंश में ही राजा शांतनु का जन्म हुआ था। जिसकी जीवन कथा के बारे में आज हम जानेंगे।


राजा शांतनु का जन्म:-  

राजा शांतनु महाभारत एक प्रमुख पात्र है ।वे ब्रह्मदेव के श्राप के कारण पृथ्वी पर शांतनु के रूप में जन्म लिए।  वे हस्तिनापुर नरेश प्रतीप के पुत्र थे राजा प्रतीप के पश्चात शांतनु राजा बने। शांतनु पितामह भीष्म के पिता एवं पांडवों, कौरवों के परदादा थे। धार्मिक शास्त्रों के अनुसार माघ मास के कृष्ण पक्ष की नवमी को भीष्म पितामह की जयंती मनाई जाती है। भीष्म पितामह महाभारत की कथा के एक ऐसे नायक हैं, जो प्रारंभ से अंत तक इसमें बने रहे। उन्होंने जीवनभर अपनी प्रतिज्ञा का पालन किया और हस्तिनापुर को सुरक्षित हाथों में देखकर ही अपने प्राणों का त्याग किया। उन्हें देवव्रत व गंगापुत्र आदि नामों से भी जाना जाता है। 


शांतनु और गंगा का मिलन:-

भीष्म पितामह के पिता का नाम राजा शांतनु था। एक बार शांतनु शिकार खेलते-खेलते गंगा तट पर जा पहुंचे। उन्होंने वहां एक बहुत ही सुंदर स्त्री देखी। उसके रूप को देखकर शांतनु उस पर मोहित हो गए। शांतनु ने उसका परिचय पूछते हुए उसे अपनी पत्नी बनने को कहा। उस स्त्री ने इसकी स्वीकृति दे दी लेकिन एक शर्त रखी कि आप कभी भी मुझे किसी भी काम के लिए रोकेंगे नहीं अन्यथा उसी पल मैं आपको छोड़कर चली जाऊंगी। 

 

शांतनु ने यह शर्त स्वीकार कर ली तथा उस स्त्री से विवाह कर लिया। इस प्रकार दोनों का जीवन सुखपूर्वक बीतने लगा। समय बीतने पर शांतनु के यहां 7 पुत्रों ने जन्म लिया लेकिन सभी पुत्रों को उस स्त्री ने गंगा नदी में डाल दिया। शांतनु यह देखकर भी कुछ नहीं कर पाए, क्योंकि उन्हें डर था कि यदि मैंने इससे इसका कारण पूछा तो यह मुझे छोड़कर चली जाएगी। 8वां पुत्र होने पर जब वह स्त्री उसे भी गंगा में डालने लगी तो शांतनु ने उसे रोका और पूछा कि वह यह क्यों कर रही है? उस स्त्री ने बताया कि वह गंगा है तथा जिन पुत्रों को उसने नदी में डाला था, वे वसु थे जिन्हें वशिष्ठ ऋषि ने श्राप दिया था। उन्हें मुक्त करने लिए ही मैंने उन्हें नदी में प्रवाहित किया। आपने शर्त न मानते हुए मुझे रोका इसलिए मैं अब जा रही हूं। ऐसा कहकर गंगा शांतनु के 8वें पुत्र को लेकर अपने साथ चली गई। 

 

भीष्म पितामह के पूर्व जन्म की कहानी:-

महाभारत में भीष्म पितामह की कथा का उल्लेख है, जो इस प्रकार है- गंगापुत्र भीष्म पिछले जन्म में द्यौ नामक वसु थे। एक बार पृथु आदि वसु अपनी पत्नियों के साथ मेरु पर्वत पर भ्रमण कर रहे थे। वहां वशिष्ठ ऋषि का आश्रम भी था। एक वसु पत्नी की दृष्टि ऋषि वशिष्ठ के आश्रम में बंधी नन्दिनी नामक गाय पर पड़ गई। यह गाय समस्त कामनाओं की पूर्ति करने वाली थी। उसने उसे अपने पति द्यौ नामक वसु को दिखाया तथा कहा कि वह यह गाय अपनी सखियों के लिए चाहती है। आप इसे हर लें। पत्नी की बात मानकर द्यौ ने अपने भाइयों के साथ उस गाय को हर लिया। वसु को उस समय इस बात का ध्यान भी नहीं रहा कि वशिष्ठ ऋषि बड़े तपस्वी हैं और वे हमें श्राप भी दे सकते हैं। जब महर्षि वशिष्ठ अपने आश्रम आए तो उन्होंने दिव्य दृष्टि से सारी बातें जान लीं। वसुओं के इस कार्य से क्रोधित होकर ऋषि ने उन्हें मनुष्य योनि में जन्म लेने का श्राप दे दिया।


वसुओं को जब यह बात पता चली तो वे ऋषि वशिष्ठ से क्षमा मांगने आए तब ऋषि ने कहा कि बाकी सभी वसुओं को तो शीघ्र ही मनुष्य योनि से मुक्ति मिल जाएगी लेकिन इस द्यौ नामक वसु को अपने कर्म भोगने के लिए बहुत दिनों तक पृथ्वीलोक में रहना पड़ेगा। यह पृथ्वी पर संतानहीन रहेगा। महाभारत के अनुसार गंगापुत्र भीष्म वह द्यौ नामक वसु थे। श्राप के प्रभाव से वे लंबे समय तक पृथ्वी पर रहे तथा अंत में इच्छामृत्यु से प्राण त्यागे।


भीष्म पितामह का जन्म:-

गंगा जब शांतनु के 8वें पुत्र को साथ लेकर चली गई तो राजा शांतनु बहुत उदास रहने लगे। इस तरह थोड़ा और समय बीता। शांतनु एक दिन गंगा नदी के तट पर घूम रहे थे। वहां उन्होंने देखा कि गंगाजी में बहुत थोड़ा जल रह गया है और वह भी प्रवाहित नहीं हो रहा है। इस रहस्य का पता लगाने जब शांतनु आगे गए तो उन्होंने देखा कि एक सुंदर व दिव्य युवक अस्त्रों का अभ्यास कर रहा है और उसने अपने बाणों के प्रभाव से गंगा की धारा रोक दी है। 

 

यह दृश्य देखकर शांतनु को बड़ा आश्चर्य हुआ तभी वहां शांतनु की पत्नी गंगा प्रकट हुईं और उन्होंने बताया कि यह युवक आपका 8वां पुत्र है। इसका नाम देवव्रत है। इसने वशिष्ठ ऋषि से वेदों का अध्ययन किया है तथा परशुरामजी से इसने समस्त प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों को चलाने की कला सीखी है। यह श्रेष्ठ धनुर्धर है तथा इन्द्र के समान इसका तेज है। देवव्रत का परिचय देकर गंगा उसे शांतनु को सौंपकर चली गईं। शांतनु देवव्रत को लेकर अपनी राजधानी में लेकर आए तथा शीघ्र ही उसे युवराज बना दिया। गंगापुत्र देवव्रत ने अपनी व्यवहारकुशलता के कारण शीघ्र प्रजा को अपना हितैषी बना लिया। 


शांतनु और सत्यवती का मिलन:-

एक दिन राजा शांतनु यमुना नदी के तट पर घूम रहे थे तभी उन्हें वहां एक सुंदर युवती दिखाई दी। परिचय पूछने पर उसने स्वयं को निषाद कन्या सत्यवती बताया। उसके रूप को देखकर शांतनु उस पर मोहित हो गए तथा उसके पिता के पास जाकर विवाह का प्रस्ताव रखा। तब उस युवती के पिता ने शर्त रखी कि यदि मेरी कन्या से उत्पन्न संतान ही आपके राज्य की उत्तराधिकारी हो तो मैं इसका विवाह आपके साथ करने को तैयार हूं। 

 

यह सुनकर शांतनु ने निषादराज को इंकार कर दिया, क्योंकि वे पहले ही देवव्रत को युवराज बना चुके थे। इस घटना के बाद राजा शांतनु चुप से रहने लगे। देवव्रत ने इसका कारण जानना चाहा तो शांतनु ने कुछ नहीं बताया। तब देवव्रत ने शांतनु के मंत्री से पूरी बात जान ली तथा स्वयं निषादराज के पास जाकर पिता शांतनु के लिए उस युवती की मांग की। निषादराज ने देवव्रत के सामने भी वही शर्त रखी। तब देवव्रत ने प्रतिज्ञा लेकर कहा कि आपकी पुत्री के गर्भ से उत्पन्न महाराज शांतनु की संतान ही राज्य की उत्तराधिकारी होगी।


शांतनु का भीष्म पितामह को इच्छा मृत्यु का वरदान:-

तब निषादराज ने कहा कि यदि तुम्हारी संतान ने मेरी पुत्री की संतान को मारकर राज्य प्राप्त कर लिया तो क्या होगा? तब देवव्रत ने सबके सामने अखंड ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा ली तथा सत्यवती को ले जाकर अपने पिता को सौंप दिया। देवव्रत की इस भीषण प्रतिज्ञा के कारण ही उनका नाम 'भीष्म' पड़ा। तब पिता शांतनु ने देवव्रत को इच्छामृत्यु का वरदान दिया। 


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